विश्व युद्ध 2 के बाद भारी मात्रा में बम बनाने की सामग्री बच गयी थी। युद्ध के बाद इस सामग्री को फर्टिलिसर का रूप दे दिया गया।
◊ लेखक है हरपाल सिंह ग्रेवाल (जैविक किसान)
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बम और भोजन। दोनों चीजें बहुत अलग हैं। सही?
गलत।
मामले की शुरुआत विश्व युद्ध 2 के बाद जर्मनी से हुई। जर्मनी के वैजानिक जुस्तुस लेबिग ने पाया कि इन बमों के मटेरियल के जरिए फसलों के उत्पादन में वृद्धि की जा सकती है। बम के इस मटेरियल का नाम अमोनियम नाइट्रेट है। कृषि भूमि के लिए इस्तेमाल होने वाले खाद में भी अमोनियम नाइट्रेट मुख्य तत्व होता है।
भोजन और फसलों की शुद्धता और बीमारी से बचाने वाले इनके बुनियादी सिद्धांतों की अनदेखी करते हुए विकसित देशों की सरकार भी विश्व युद्ध 2 के बचे हुए अमोनियम नाइट्रेट के नए नाम (फर्टिलिसर) और प्रयोग से काफी प्रभावित हुई। इन सरकारों ने यह भी नहीं सोचा कि मनुष्य सहित अन्य जीवों पर इसका बुरा प्रभाव पड़ सकता है। फसलों की वृद्धि की क्षमता की वजह से इस उर्वरक को युद्ध के बाद से आज तक इस्तेमाल किया जा रहा है।
“विस्फोटक पदार्थ बनाने वाले रसायन उद्योगों ने विश्व युद्ध 2 का खूब लाभ उठाया। इन अमीर उद्योगों ने बेवक़ूफ़ और भ्रष्ट वैज्ञानिकों और राजनेताओं की जेबें भर-भर कर उनका मुँह बंद कर दिया, और इस ही तरह अपने एजेंडे को आगे बढ़ाया।”
इस पर एक सवाल उठता है: कि क्या कभी वैज्ञानिकों या विचारकों ने इन बमों के तत्वों का उर्वरक के नाम पर इस्तेमाल करने का विरोध क्यों नहीं किया?
इसका जवाब है, हां । इसका ब्रिटिश वनस्पति-वैज्ञानिक सर अल्बर्ट होवार्ड ने विरोध किया, लेकिन अमोनियम नाइट्रेट का बिजनेस करने वाले रासायनिक उद्योगों ने ऐसा होने न दिया।
इस तरह, विस्फोटक पदार्थ बनाने वाले रसायन उद्योगों ने विश्व युद्ध 2 का खूब लाभ उठाया। इन अमीर उद्योगों ने बेवक़ूफ़ और भ्रष्ट वैज्ञानिकों और राजनेताओं की जेबें भर-भर कर उनका मुँह बंद कर दिया है, और इस ही तरह अपने एजेंडे को आगे बढ़ाया।
इसके चलते मनुष्य सहित अन्य जीवों ने बीमार आबादी को जन्म देना शुरू किया। इसने मिट्टी को नुकसान पहुंचाने और जलवायु परिवर्तन में भी योगदान दिया है। इस प्रक्रिया ने बौद्धिक भ्रष्टाचार जैसे बड़े भ्रष्टाचार को भी जन्म दिया है।
“फर्टिलिसर को उद्योयगपति ‘दवाई’ का नाम देतें हैं, मगर ये असल में ज़हर है।
कृषि विश्वविद्यालय रसायनिक फर्टिलिसर के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है। जब हम उर्वरक का इस्तेमाल करते हैं तो पौधों का कार्बन- टू -नाइट्रोजन (C:N) रेश्यो बिगड़ जाता है। पौधे की संरचना कमजोर हो जाती है जिससे उस पर कीड़े लगने का खतरा और बढ़ जाता है।”
जुस्तुस लेबिग ने बाद में सर अल्बर्ट होवार्ड के विरोध और निष्कर्ष आने के बाद माफी भी मांगी (बमों को फर्टिलिसर के तौर पर उपयोग करने का आईडिया देने के लिए), लेकिन इस घटना को इनसाइक्लोपीडिया ब्रिटानिका से मिटा दिया। नतीजतन, हम अपनी धरती पर रसायनों के सफल और दीर्घकालिक उपयोग की वजह से एक बड़ी खतरनाक पर्यावरणीय क्षति की कगार पर पहुंच गए हैं।
इसी दौरान, उर्वरक के खिलाफ विरोध होना भी शुरू हो चुका था। कई ऐसे ग्रुप थे जो सर होवार्ड की बातों से सहमत थे क्योंकि सबको पता था हम वही हैं जो हम खाते हैं।
पहला सुधार समूह जर्मनी में पनपा और वह धीरे-धीरे पूरे यूरोप में फैलने लगा। इसके बाद, जैविक खेती पर आधारित पहला कार्यकारी ग्रुप AGOL का निर्माण हुआ। बाद में AGOL को IFOAM का नाम दे दिया गया।
ऑस्ट्रेयाई वैज्ञानिक रुडोल्फ स्टेनर ने हरिद्वार में वैदिक पंचांग के बारे में जाना। वैदिक पंचांग भारत में आज तक माना जाता है। स्टेनर ने इस विषय पर 4 लेक्चर दिए जो की आज बायोडिनामिक फार्मिंग के रूप में जाने जाते हैं। पंचांग में आकाशीय हलचलों के आधार पर गणनाएं होती हैं।
ऐसा कोई एग्रो – केमिकल (कृषि रसायन) मौजूद नहीं है जो पौधों की जड़ों को नुकसान नहीं पहुंचाता। पौधों को जहरीला एग्रो – केमिकल देने के बाद हमने न ही पौधों की जड़ों के व्यवहार के बारे में समझा और न ही कभी उसकी गहराई में देखा। इसकी वजह से, हमारे भोजन में हानिकारक रासायनिक अवशेषों घुल रहे हैं।
फर्टिलिसर फसल और इंसान – दोनों के लिए हानिकारक हैं
फटलीसेर को उद्योयगपति ‘दवाई’ का नाम देतें हैं केवल ये असल में ज़हर है।
कृषि विश्वविद्यालय रसायनिक फर्टिलिसर के इस्तेमाल को बढ़ावा देती है। जब हम उर्वरक का इस्तेमाल करते हैं तो पौधों का कार्बन- टू -नाइट्रोजन (C:N) रेश्यो बिगड़ जाता है। पौधे की संरचना कमजोर हो जाती है जिससे उस पर कीड़े लगने का खतरा और बढ़ जाता है।
इसकी शुरुआत वीडीसीडे से होती है। पहले किसान वीड (खरपतवार) को खत्म करने के लिए केमिकल यानी रसायन (वीडीसीडे) का उपयोग करता है।
बाद में बुवाई के दौरान ही पहले से ही फसलों को बढ़ने के लिए रासायनिक उवर्रक की खुराक दी जाती है। इसकी वजह से खरपतवार खत्म करने वाले रासायन फसल की जड़ों को नुकसान पहुंचाता है और यही से फसलों को नुकसान पहुंचने का नकारात्मक चक्र शुरु होता है।
किसान जब फसलों को बढ़ाने के लिए दूसरी बार खुराक देता है, पौधे और भी कमजोर और पोषणहीन हो जाते हैं। उनकी जड़े खरपतवार – नाशक की वजह से पहले ही कमजोर हो जाती है।
पौधा उचित भोजन बनाने की प्रक्रिया में असफल होता है और खुद जीवित रहने के लिए रासायनिक से भरे असुरक्षित भोजन का निर्माण करता है। इस तरह पौधे का इम्युन सिस्टम कमजोर हो जाता है और प्रकृति का संतुलन उसे अनचाहे कीटों, खरपतवार और फंगी से भर देता है। और यही रसायन से भरे पौधे से निकला भोजन हमारी थालियों और हमारे खून में दौड़ता है। इसलिए हमें जैविक भोजन खाने की तुरंत जरुरत है।
मैं हैरान हूं, हाल ही में मैंने जाना कि बीज उद्योग Rs 1-5 लाख/kg बीज बेच रहे हैं, फिर भी घाटे मैं हैं। मेरी रिसर्च के मुताबित लगभग 40% फसलों की बीमारी बीजों से शुरू होती है। इस घाटे से बचने के लिए बीज उद्योग पति अच्छे बीज खराब बीजों के साथ मिला देते हैं।
हमें खेती और देश को बचाने की सख्त जरुरत है। हमें देशभर की खेती में जैविक बीजों को अनिवार्य करना होगा। कम से कम, हम इस तरह अपनी फसलों और खेती में अंधाधुन इस्तेमाल होने वाले रसायन से बचाने में सक्षम होंगे।
जैविक खेती को सरकार उचित ध्यान नहीं दे रही
आज जैविक भोजन, जैविक खेती और जैविक बिजनेस निराशाजनक स्तिथि में हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जैविक खेती को बढ़ावा देने और प्रचारित करने की बात कही, लेकिन अब तक इस पर कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है।
जैविक भोजन और खेती पर कोई स्वतंत्र शोध नहीं किया गया है। जैविक खेती के लिए कोई धनराशि आवंटित नहीं की गई है। इतना ही नहीं, जैविक बीजों के उत्पादन के लिए कोई स्थान, कानून और नियम नहीं है। जैविक बीजों को बढ़ावा देने के लिए कोई प्रोत्साहन, कोई प्रचार, कोई शोध, कोई धन उपलब्ध नहीं हैं। वास्तव में, किसानों ने ही जैविक अवधारणा को शुरू किया और जैविक खेती से जुड़ा जो कुछ भी आज उपलब्ध है, वह सिर्फ किसानों द्वारा ही किया गया है।
जिन कृषि संस्थानों को पहले हम पवित्र मानते थे, वे अब भ्रष्टाचार का अड्डा बन गए हैं और किसानों को गलत जानकारी और सुझाव (की किसान ज्यादा से ज्यादा रसायनिक उर्वरक का इस्तेमाल करें) दे रहे हैं। जानबूझकर गलत सुझावों और विचारों को प्रोत्साहित किया जा रहा है। कई कृषि संस्थान सिर्फ कृषि रसायन उद्योग के लिए नर्सरी बन गए हैं। वहां कोई वास्तविक कृषि ज्ञान नहीं सिखाया जाता।
किसानों के साथ-साथ उपभोक्ता भी इसका सामना कर रहे हैं।
फैक्ट्री–निर्मित जैविक बनाम खेत–का–जैविक
सरकारी निकायों के प्रोत्साहन से जैविक निर्यात को बढ़ावा दिया गया, जैविक बिजनेस के लिए खेत के जैविक को फैक्ट्री-निर्मित जैविक में बदल दिया है। जैविक को सिर्फ TC तथा लैब टेस्ट तक सीमित कर दिया गया है।
मेरे विचार में, लैब टेस्ट और TC पर निर्भर खाद्य को ‘रासायनिक–मुक्त’ या ‘केमिकल–फ्री’ कहा जा सकता है, लेकिन जैविक या आर्गेनिक नहीं। वास्तव में जैविक उत्पाद से एलर्जी पैदा नहीं होती है। मैं 1992 से जैविक खेती कर रहा हूँ, और ये मैंने 27 वर्षों में सीखा है। भारतीय वैदिक खेती के तौर तरीके जैविन खेती की जान हैं।
रासायनिक खेती से लड़ने के लिए कुछ सुझाव:
- खेती को लेकर कृषि संस्थानों को वर्तमान खाद्य कानूनों का पालन करना चाहिए।
- मिट्टी के उपजाऊपन को ‘राष्ट्रीय संपत्ति’ या ‘राष्ट्रीय विरासत’ घोषित किया जाना चाहिए। इसे हर कीमत पर बनाए रखने की जिम्मेदारी कृषि विभागों की होनी चाहिए। दुनिया में रासायनिक उद्योगों के बढ़ते उत्पादन के दावे के बावजूद मिट्टी का उपजाऊपन घटता जा रहा है ।
रासायन खेती को ‘एग्रीकल्चर’ नहीं बल्कि ‘केमिकल्चर’ का नाम देना चाहिए।
- उर्जा और पानी के संरक्षण के साथ-साथ मिट्टी, फसलों और फसलों के पोषण तत्वों को बचाने के लिए ‘सिंचाई‘ शब्द को बदलकर ‘नमीकरण‘ कर दिया जाना चाहिए।
- ‘उपज’ शब्द को परिभाषित करने की जरुरत है। क्या ये वजन के अनुसार टोला जाता है? या फिर खाद्य कानून और खाद्य गुणवत्ता से संबंधित होना चाहिए?
- ‘फर्टिलिसर’ को स्पष्ट रूप से परिभाषित करने की जरुरत है। बूस्टर या फिर केमिकल फटलीसेर और असली फर्टिलिसर (जैविक फर्टिलिसर, जो की सच में फसल और मिटटी को तंदुरुस्त करता हैं ) के बीच के अंतर को स्पष्ट करने की जरूरत है।
- वृक्षार्युवेद, अग्निहोत्रा, पंचांग, प्रकाश निघंतु सहित सभी पौराणिक नियमों के साथ वैदिक कृषि पढ़ाने की सख्त जरुरत है।
- सब्सिडी देना बंद करो- आप किसान का गौरव छीन रहे हैं और उसे भिखारी बना रहे हैं। खेती बिजनेस के लिए किसानों को सम्मानित कीजिए। सब्सिडी देने के बजाय किसानों को उचित मूल्य (फेयर प्राइस), यानी लागत मूल्य से अधिक लाभ दीजिए। किसान का शोषण बंद करो।
भाइयों, हम अपनी संस्कृति पर लौटें और इसका दुनिया में प्रसार करें। वर्तमान व्यवस्था के साथ, हम कभी सतत विकास तक नहीं पहुंच सकते। हमारी पूरी सामाजिक-आर्थिक संरचना को सतत विकास के लिए वैदिक परंपराओं को अपनाने की जरूरत है।
खास तौर पर खेती में।
लेखक के बारे में
लेखक 1992 से जैविक किसान हैं और उत्तर भारत के उन किसानों में से हैं जिन्होंने पहले जैविक (आर्गेनिक) खेती करना शुरू किया। वह हरियाणा के सिरसा में हेवनली फार्म के मालिक हैं। ये फार्म जैविक चावल उगाता और बेचता है।
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