हमारे अन्नदाताओं से मिलने का समय आ गया है
◊ लेखिका है डॉ. सुप्रिया महाजन सरदाना, एम. डी; फोटो लेखिका द्वारा
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पूरे दिन भाग दौड़ करने और व्यस्त रहने के बाद रात को हम सभी लोग भोजन करने बैठते हैं। लेकिन क्या आपने सोचा है या पता लगाया है कि ये महत्वपूर्ण, पौष्टिक और संतोषजनक भोजन कहां से आता है? और उससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण, कैसे आता है?
नहीं, मैं आपको स्विगी, जोमेटो आदि को पसंक करने के लिए नहीं बोल रही, ना ही गुमराह करने वाली किसी सुपरमार्केट स्कीम के बारे में। विडंबना यह है कि, प्रौद्योगिकी ने शहरी लोगों के चंचल मन को इससे पहले कभी इतना ज्यादा नहीं लुभा पाई थी, जबकि वास्तविक अन्नादाता यानि किसान अब भी फू़ड बिजनेस से कई प्रकाश वर्ष दूर हैं!
हमारे जैविक किसानः अज्ञात हीरो
एक समय था जब स्वतंत्रता संग्राम की घटनाओं को कृषि कैलेंडर के अनुसार नियोजित किया जाता था और त्यौहार भी मुख्य रूप से फसलों के हिसाब से मनाए जाते थे। जबकि अब किसान नेताओं और उद्योगपतियों की ओर उम्मीद भरी नजरों से देखने को मजबूर है।
भारतीय सेना को सराहा जाता है। लेकिन एक और आर्मी है हमारे देश में जिसे बहुत बुरी तरह नजरअंदाज़ किया जाता है—हमारे प्यारे किसान। “जय जवान” का नारा उसके समकक्ष “जय किसान” के बिना अधूरा है
हाल ही में जम्मू-कश्मीर के पुलवामा में हुए हमले और इसके परिणामस्वरूप भारत-पाकिस्तान के बीच हुए गंभीर स्थिति के बीच संयोगवश मेरा पंजाब के फजिलका जिले में कुछ किसानों के पास जाना हुआ। फजिलका भारत-पाकिस्तान सीमा के नजदीक का क्षेत्र है।
इस दौरान मीडिया में श्रद्धांजलि और प्रोत्साहन जैसे देशभक्ति माहौल से पटा पड़ा रहा और यह सही भी है, उन सैनिकों के लिए जिन्होंने नियंत्रण रेखा को चुना। लेकिन जिस तरह भारतीय सेना को सराहा जा रहा है, इसके विपरीत मौसम की मार झेलने, कीटों के हमलों और बाजार की कमी से जूझते किसानों को उनकी राष्ट्र सेवा के लिए हम कभी मान्यता या महत्व नहीं दिया जाता। “जय जवान” का नारा उसके समकक्ष “जय किसान” के बिना अधूरा है।
अपने अन्नदाता से मिलें
मेरी यात्रा सिर्फ जैविक खाद्य खरीदना और पैदा करना है। मातृत्व और स्वास्थ्य संबंधी चिंताओं के साथ प्राकृतिक जीवन की शुरुआत करना है। जैसे-जैसे रास्ता साफ होता गया, हमारे जीवन में किसानों की जबरदस्त भूमिका मुझ पर हावी होती गई और मुझे इन अन्नदाता के प्रति गहरी आस्था का अहसास हुआ। कुछ प्रिय लोगों के अनुभव से प्रेरित होकर, इन किसानों को जानना अब मेरा पसंदीदा विषय/व्यवसाय बन गया है। प्रत्येक अवकाश पर या परिवार के साथ जैविक/प्राकृतिक खेतों में जाते हैं, जहां हमारे भोजन का उत्पादन होता है। मैं यहां 5 उत्कृष्ट किसानों के बारे में लिख रहूी हूं।
1] रामपुरा प्राकृतिक फार्म के किसान, सरदार इंदर सिंह सिद्धू
जगह: रामपुरा, फ़ज़िल्का, पंजाब
यह प्राकृतिक खेती करने वाले एक जोशीले किसान हैं, जिन्होंने कभी भी रसायन का प्रयोग नहीं किया
पंजाब के फजिलका जिले के रामपुरा गांव में रामपुरा प्राकृतिक फार्म्स के सरदार इंदर सिंह 90 साल की उम्र में भी बहुत चुस्त हैं। वह प्राकृतिक खेती के पोस्टर बॉय हैं। पी.जी.एस. से मान्यता प्राप्त खेती विरासत मिशन (के.वी.एम.) उन्हें हरित क्रांति को नज़रअंदाज़ करने वाले महान किसान के तौर पर देखती है। पी.जी.एस. यानि सहभागिता गारंटी व्यवस्था पंजाब में एक प्राधिकरण है।
सिधुजी को प्रेम से पापाजी कहते हैं। वे बताते हैं कि उन्हें याद नहीं कि उन्होंने अपने खेतों में आखिरी बार कब यूरिया और डीए. ए. पी. या किसी केमिकल कीटनाशक का इस्तेमाल किया। खेती के मामलों में वह शीर्ष पर हैं, वह अपने 17 एकड़ के खेत पर खेती के बीज से फसल तक हर चरण की देख-रेख करते हैं। यहां तक कि वह अपने 1,000 से ज्यादा पेड़ों वाले अमरूद के बागों की कटाई के लिए काम पर रखे गए ठेकेदार को हटाने का जोखिम भी उठाते हैं, अगर वह कभी भी उनके उच्च गुणवत्ता मानकों से भी थोड़ा कमी करता है। हालांकि वे एक बहुत ही अनुभवी किसान हैं, जोकि फसल के बदलावों, जैव विविधता, इंटरक्रॉपिंग, नाइट्रोजन-फिक्सिंग पौधों और हरी खाद से अच्छी तरह से वाकिफ है, वह अपने खेत के लिए ‘जैविक’ शब्द का उपयोग करना पसंद नहीं करते हैं।
1960 के दशक में, भारत में अमोनियम सल्फेट एक हैरान करने वाले पदार्थ के रूप में आया और इसके बाद अन्य रसायनिक खादें, घास नाशक और कीटनाशक को जहर मानने के बजाय दवाई माना जाने लगा। सिद्धू को कुछ बेतुका सा लगा। अपने अंतर्ज्ञान द्वारा निर्देशित होते हुए वह अपने पूर्वजों के पारंपरिक प्राकृतिक तरीकों को मानते रहे और प्राकृतिक उर्वरकों में गोबर का उपयोग करते रहे हैं। हालांकि उनके जान्ने वाले सब रासायनिक खेती की लपट में आ गए, सिद्धू ने केमिकल द्वारा अधिक फसलों के प्रलोभन और अधिक धन या कमाई का विरोध किया।
उनके जैविक खेती के प्रयासों में उनकी बहू मधुमीत कौर और सुपुत्र हरजिंदर पाल सिंह सिद्धू अधिक सहयोग करते हैं। सिर्फ इसलिए नहीं कि वह अपने उत्पादों के लिए बाजार में अधिक कमाई कर सके बल्कि मूल्यवर्धित उत्पाद बनाकर लोगों को कई प्रकार के उत्पाद देने का प्रयास करते हैं। मधुमीत कौर की रसोई एक देहाती सपना है जिसमें खाना बनाने वाले पारंपरिक बर्तनों और उपकरणों से भरा हुआ है। इनमें वह मुंह में पानी लाने वाले समृद्ध पंजाबी खाना पकाती हैं। उनकी रसोई में चुल्हा, हारा, मदानी, कुंडा-सोटा, मिट्टी दे कुज्जे और पीतल की हांडी जैसे प्राचीन बर्तन है जिनका आधुनिक बर्तनों से बड़ा स्तर है।
सिद्धू परिवार ने तैत्तिरीय उपनिषद के “अन्नं ब्रह्मा”* और “अतिथि देवों भव”** के सिद्धांतों को पढ़ा या न पढ़ा हो लेकिन वे उन्हें पूरी तरह जीते हैं। सिद्धू के मुताबिक, “जमीन का मालिक वास्तव में जमीन का मालिक नहीं होता है। इसे अन्य लोगों के साथ भी बांटना उसका नैतिक दायित्व है।”
प्राकृतिक खेती के लिए उनके दृढ़ विश्वास और अभियान ने खेती-बाड़ी और उसमें हाथ बंटाने वाले मजदूरों सहित कई किसानों को रासायनिक आधारित खेती को छोड़कर प्राकृतिक खेती करने के लिए प्रेरित किया है। मेरी यात्रा के समय, कौर और उनका परिवार एक कृषि विश्वविद्यालय से स्नातक में भाग लेने में व्यस्त थे क्योंकि उन्होंने प्राकृतिक खेती पर 40-दिन के प्रशिक्षण (ट्रेनिंग) के लिए दाखिला लिया था।
2] ढींगरा प्राकृतिक फल फार्म के किसान, रवि ढींगरा
जगह: मोहम्मद पीरा, फ़ज़िल्का, पंजाब
ढींगरा के ‘गार्डन ऑफ़ इडेन’ में ड्रैगन फ्रूट, अमरूद, सिट्रस, पल्म, खुबानी, लोकाट, खजूर और अंजीर जैसे फलों की भरपूर फसलें
रवि ढींगरा पर उनके दोस्त और किसान सरदार इंदर सिंह सिद्धू का प्राकृतिक खेती के प्रति जोश का काफी प्रभाव पड़ा जिसकी वजह से 5 साल पहले उन्होंने प्राकृतिक खेती के तरीके, जैसे खाद, मल्चिंग, फेरोमोन ट्रैप्स का उपयोग करना शुरू कर दिया और रासायनिक खेती को छोड़ दिया।
उनका ‘गार्डन ऑफ़ ईडन’ जैसा प्राकृतिक फल फार्म फजिलका के मोहम्मद पीरा गांव में हैं। उनके हरे-भरे बगीचे में अब ड्रैगन फ्रूट, अमरूद, सिट्रस (संतरे, मौसमी, नींबू, किन्नू यानि नींबू प्रजाति वाले फल), पल्म, खुबानी, लोकाट (चीनी-जापानी प्रजाति का फल), खजूर और अंजीर की प्रचुर मात्रा में पैदावार होती है, जो प्रकृति और प्राकृतिक खेती के इनाम की गवाही देती है। ढींगरा के सुपुत्र के अनुसार, उनके बागों को अच्छी तरह से संतुलित पारिस्थितिक तंत्र ने ऐसा स्व-नियमित करने वाला वातावरण बनाया है जिसमे “कुछ भी उग जाता है!”
3] सिहाग जैविक फार्म के किसान, सुरिंदर पाल सिंह
जगह: ढिंगावली, पंजाब
सिंह के 115 एकड़ खेत में जैविक खेती हैं, जिसमें वह रसायन मुक्त चना, बाजरा, तिल, मूंग, सरसों और बहुत कुछ उगाते हैं
राजस्थान के श्री गंगानगर जिले की सीमा से लगे ढिंगावली गांव में रामपुरा से सटे एक और जैविक किसान परिवार का घर है।
सुरिंदर पाल सिंह ने बंजर भूमि का पोषण किया है, जिस पर उन्होंने कभी भी रसायनों या यंत्रीकृत सिंचाई का प्रयोग नहीं किया। फिर भी इन खेतों में चना, बाजरा, तिल, मूंग, सरसो आदि फसलों की प्रचुर मात्रा में पैदावार होती है।
सिंह ने रासायनिक खेती के खोखले वादों से मोहभंग के वर्षों के बाद इसे पूरी तरह से छोड़ने का फैसला किया। 1992 में, उन्होंने अपनी पूरी भूमि को एक प्राकृतिक खेत में बदलने के लिए एक कदम-दर-कदम प्रक्रिया की शुरुआत की। 2016 तक, उनकी भूमि के 80 एकड़ जमीन को ‘आर्गेनिक’ स्तर की प्राप्ति हुई, जो कि केंचुआ कास्टिंग में इतनी समृद्ध थी कि वैज्ञानिकों के लिए परीक्षण नमूने एकत्र करना मुश्किल हो गया! वर्तमान में वह अपनी 35 एकड़ जमीन के जैविक प्रमाणीकरण की प्रतीक्षा है।
सिंह का दोनों रास्ते (प्राकृतिक एवं रासायनिक-आधारित खेती) पार करने के बाद कहना है कि प्रकृति के बदलाव और हमले, रासायनिक और प्राकृतिक, दोनों पर आधारित खेती करने वाले किसान एक ही तरह से प्रभावित रहे हैं। लेकिन रासायनिक पदार्थ उपयोग करने वाले किसान कर्ज और तनाव के बोझ के नीचे बुरी तरह दब जाते है। यह इसलिए क्यों की रासायनिक पदार्थ मेहेंगे होते है और वक्त के साथ इनको बड़ी मात्रा में इस्तेमाल करना पड़ता है, जिसकी वजह से किसान कर्ज के चक्रव्यूह में फस जाता है।
सिंह ने आगे कहा कि रासायनिक कीटनाशक कीटों से मुक्ति सुनिश्चित नहीं करते हैं। उन्होंने कहा, “हमने कीटनाशकों के उपयोग के बावजूद भी भयानक कीटों के हमलों को देखा और रासायनिक रूप से की गई खेती में भारी फसल बर्बादी का सामना किया है। इसके अलावा, मेरे परिवार ने शिकायत की है कि कैसे भोजन से प्राकृतिक सुगंध और स्वाद गायब हो गए।”
जैविक खेती में बदलाव की चुनौतियों के बावजूद सिंह ने कभी रासायनिक तरीकों पर ध्यान नहीं दिया। उन्होंने कहा कि छोटे भू-मालिकों के लिए मुश्किल है कि वे समर्थन प्रणाली के अभाव में अपनी जमीन हल से जोतते हैं और आय के अन्य साधनों को पीछे छोड़ दे; यह बड़े भूस्वामी हैं जो इसे धरती माता को कम से कम कुछ हिस्सों को जैविक/प्राकृतिक खेतों में परिवर्तित कर सकते हैं।
4] मान बाग की रेणुका मान
जगह: रम्बा, करनाल, हरियाणा
मान 1996 से 50 एकड़ जैविक फार्म की देखरेख कर रही हैं
रेणुका मान अपने 50 एकड़ जमीन पर प्राकृतिक खेती कर रही हैं। उनके पति मर्चेंट नेवी में हैं, जो साल में अधिकत्तर बाहर ही रहते थे, तो इस 50 एकड़ खेत का प्रबंधन साल 1996 से रेणुका मान के युवा कंधों पर आ गया, जब उनके ससुर बीमार हो गए।
उन्होंने वर्षों से रासायनिक खादों के अंधाधुंध प्रयोग से मिट्टी और खाद्य फसलों को काफी नुकसान होते हुए देखा। इसके बाद उन्होंने खेती के प्रबंधन और देखरेख की जिम्मेदारी अपने हाथों में लेने का फैसला किया। इसके लिए 2006 में उन्होंने पंजाब कृषि विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर के मार्गदर्शन में प्राकृतिक खेती करने का तरीका सीखा और इसमें हाथ आजमाया। उनके परिवार के समर्थन और प्रोत्साहन ने उनकी आकांक्षाओं को आगे बढ़ाने के लिए प्रेरित किया। 2012 में, उन्होंने नई दिल्ली में एक जैविक किसानों के बाजार में अपनी प्राकृतिक उपज बेचना शुरू किया।
मान कहती हैं उनका सबसे बड़ा इनाम है जब उनकी प्राकृतिक खेती से उपजे उत्पाद को खाने के बाद बुजुर्ग लोगो को अपना बचपन याद आ जाता है, क्योंकि वे तब भी ऐसा शुद्ध भोजन खाते थे।
5] अजय स्वावलंबन केंद्र के किसान, दीपक उपाध्याय
जगह: नकरौंदा, देहरादून, उत्तराखंड
उपाध्याय के जैविक खेत में जैविक खेती सीखने के लिए एक पाठशाला भी है
गन्ने के खेतों में कीटों, फसल रोग और जहरीले रसायनों के दुष्चक्र में फंसे किसान दीपक उपाध्याय जैसे-तैसे इससे निकलना चाहते थे।
साल 1994 में, वह पहली बार प्राकृतिक खेती की संभावनाओं से अवगत हुए, जब उनके गांव को तत्कालीन उत्तर प्रदेश सरकार की जैविक कृषि योजना के तहत अपनाया गया था। इस योजना से प्रेरित होने के बाद, उन्होंने नकरौंदा गांव में अपनी 3 एकड़ भूमि को धीरे-धीरे अगले कुछ वर्षों के भीतर एक प्रमाणित जैविक खेत में बदल दिया।
दीपक उपाध्याय साल 2011 से एक जैविक कृषि पाठशाला (उपाध्याय ने इसे अजय स्वावलंबन केंद्र का नाम दिया हैं) चला रहे हैं, जिसमें वह जैविक खेती में रूचि रखने वालों को प्राकृतिक खेती करना सिखाते हैं। उनकी जैविक पाठशाला देश के 100 प्रशिक्षण केंद्रों में से एक है जोकि सरकार के गौ-आधारित प्राकृतिक खेती योजना के तहत आती है। यह योजना कृषि वैज्ञानिक सुभाष पालेकर के जीरो बजट प्राकृतिक खेती प्रारूप पर आधारित है।
उपाध्याय के खेत जैव विविधता से सुसज्जित है जिसमें एक बायोगैस प्लांट, सोलर पैनल, वर्मीकम्पोस्ट पिट (केंचुओं से भरा खड्ढा), एक वर्षा जल संग्रहण तालाब और इसके अलावा देसी गाय, बकरी, मुर्गी, बत्तख, खरगोश, मछली और पक्षी शामिल हैं। ये सभी प्रकृति के साथ सामंजस्य स्थापित करते हैं। उन्होंने स्वदेशी गाय संरक्षण, जल संचयन और टिकाऊ खेती के बारे में लोगों को जागरूक करना अपना मकसद बना लिया है।
प्राकृतिक खेती की अनेक चुनौतियां
अन्य उद्यमों के विपरीत, प्राकृतिक और जैविक किसान अपने साथियों के साथ व्यापार रहस्य बाटते है—केवल इसलिए नहीं क्योंकि उनमे सद्भावना है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि वे क्लस्टर खेती के लाभों को समझते है।
लेकिन अफसोस है कि उत्तर भारत में ऐसे किसान ज्यादातर अकेले ही खड़े हैं। इसलिए, एक छोटे जमीन मालिक के लिए पर्याप्त बफर ज़ोन (संपर्क क्षेत्र) बनाए रखना एक बहुत बड़ी चुनौती है, क्योंकि हवा, भूजल और मिट्टी का खिसकाव जैविक सर्टिफिकेशन की पहले से ही लम्बी चौड़ी प्रक्रिया को बाधित कर सकता है।
हालांकि, लम्बे चारे की फसल या लम्बे पेड़ों के रूप में एक बफर ज़ोन रसायन स्प्रे और कीटों से वायु-जनित विकारों या दूषण से सुरक्षा प्रदान करता है, भूजल की अशुद्धता सर्वव्यापी है, और इसे केवल राज्य द्वारा कम किया और रोका जा सकता है।
सरकारी कृषि नीतियां और कृषि विश्वविद्यालयों में होने वाले अधिकांश वैज्ञानिक अनुसंधान, अब तक भारतीय किसान की बेहतरी के लिए इस्तेमाल नहीं किए गए हैं। किसानों का मानना है कि सरकार अभी भी रासायनिक खेती, एम. एन. सी. उत्पादों, जी. एम. ओ. बीज और इस तरह के अन्य प्राकृतिक-विरोधी सामग्रियों में अपना हित दिखाती है और केवल दिखावे के लिए प्राकृतिक और जैविक खेती को थोड़ी-थोड़ी मदद करती रहती है।
किसानों की हित और राय को जाने बिना, और मिट्टी की स्थिति, जलवायु या पानी के ताल की स्थिति को ध्यान में रखे बिना नीतियां तैयार की जाती हैं। तेजी से बढ़ने वाली और पानी ज्यादा पीने वाली फसलों को बढ़ावा दिया जाता है जिसकी वजह से जमीन के जल स्तर में कमी होती है। रसायन आधारित किसान एम. एस. पी. और गेहूं और चावल की सरकारी खरीद के आश्वासन के चलते जैव-विविधता और फसल चक्र घेरे में फंस जाता है। बस ज्यादा से ज्यादा मात्रा में पैदावार करने पर जोर दिया जाता है, गुणवत्ता और स्थिरता पर कोई ध्यान नहीं देता।
धरती मां से प्रेम ही उन्हे हौसला देता है
इन सब चुनौतियों के बावजूद, प्राकृतिक और जैविक किसानों को धरती माता, उनकी फसल, और संसार पर सारे ही पशु-पक्षी से प्रेम है। शहरी लोगों के विपरीत, अच्छे स्वास्थ्य का आनंद लेना उनके लिए केवल एक माध्यमिक लाभ है। उदाहरण के लिए, प्राकृतिक किसान फसल के अवशेषों को भूसे, चारे, मल्चिंग और खाद के तौर पर सावधानी से सहेजते हैं, जबकि उनके पड़ोसी इसे अंधाधुंध जलाते हैं। उनका ऐसा स्वभाव उनको जिम्मेदारी का बोध कराता है। सिहाग जैविक फार्म के सिंह अपने गांव में सरकार के प्राथमिक विद्यालय सहित, अपने समुदाय की सार्वजनिक सुविधाओं में सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
कमाई और मुनाफे के बारे में मिट्टी के इन रखवालों से कोई भी सवाल का उत्तर जीवन के गहन लेकिन सरल सत्यों में डूबा होता है। वे इस बात को जानते हैं कि प्राकृतिक खेती अत्यधिक अप्रत्याशित है और पैदावार उम्मीद से कम हो सकती है, केवल इससे प्राप्त संतुष्टि अतुलनीय है।
मेरे प्रिय पाठक, इस लेख के माध्यम से इस लेखिका ने हमारे आधुनिक नायकों और उनके योगदानों से आपको परिचित कराने का प्रयास किया है।
अब आपकी बारी है आगे बढ़ उनसे मिलने और समर्थन करने की!
कृपया ध्यान दें:
*भोजन ईश्वर है।
**मेहमान भगवान हैं।
लेखिका दिल्ली एन. सी. आर में एक त्वचा विशेषज्ञ हैं और प्राकृतिक जीवन शैली के प्रस्तावक हैं।
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